बिहार के इस क्षेत्र में दिवाली की रात आज भी ‘हुक्कापाती’ खेलने का है पारंपरिक महत्व

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बिहार के कोसी और आसपास के इलाके में दीपावली में हुक्कापाती का विशेष महत्व है। दरअसल यहां जूट की संठी लकड़ी की बनी हुई हुक्कापाती के बिना दीपावली का पर्व अधूरा रहता है। दीपावली के दिन घरों के छप्पर पर रखने के अलावे इसे जलाकर लोग हुक्कापाती खेलते हैं।

परंपरा के अनुसार हुक्कापाती को लोग घर के एक कोने में जलाकर ‘लक्ष्मी घर दलिदर बाहर’ शब्द का उच्चारण करते हर पूजा घर समेत पूरे घर में घुमाया जाता है। इसके बाद घर के बाहर खेत या सड़क पर जलाते हुक्कापाती को रखकर पांच बार लांघा जाता है। यह वर्षो से चली आ रही परंपरा अब भी कायम है। दीपावली को घर में दीये जलाने और पूजा पाठ करने के बाद हुक्कापाती खेलने का रिवाज है। बगैर हुक्कापाती निकाले लोग घर से बाहर नहीं निकलते हैं। इसलिए दीपावली में अन्य साम्रगी की खरीददारी के साथ साथ लोग हुक्कापाती को जरूर खरीदते हैं। हालांकि जहां पटूआ की खेती होती है। वहां के लोग खुद ही इसे बना लेते है। लेकिन अधिकांश जगहों पर पटुआ नहीं होने से लोगों को संटी की बनी हुक्कापाती खरीदनी पड़ती है।

जदिया, मीरगंज आदि से मंगाये गये संठी
दिवाली को लेकर पटुआ के लकड़ी की मांग काफी बढ़ जाती है। लकड़ी से हुक्कापाती बनाकर बेचने के लिए कई लोग जदिया मीरगंज आदि जगहों से खरीदकर ट्रक भरभरकर कर मंगा चुके हैं। इस संटी(पटुआ की लकड़ी) को छोटे छोटे टुकड़े कर पांच छह संटी को एक साथ बांध कर बेचते हैं। इस हुक्कापाती को लोगों को पांच से दस रूपये तक में बेचा जाता है।

खूब हुई हुक्कापाती की बिक्री
जूट की डंडियों से बनी दीपावली के मौके पर घर-घर में जलाये जाने वाली हुक्का-पाती जलाने का रिवाज कोसी और आसपास के अंचलों अधिक पाया जाता है। हुक्का-पाती को जलाकर लोग दिवाली मनाने की रात में अंतिम परंपरा पूरी करते हैं।