आज हिन्दी भारत ही नहीं, पूरे विश्व पटल पर तेज़ी से उभर रही है. इस विषय पर आयोजित सम्मेलनों में हम गर्व से कहते हैं कि हिन्दी यूएन की भाषा बनती जा रही है. विश्व के अधिकतर विश्वविघालयों में भारतीय भाषा एवं संस्कृति पढ़ाई जा रही है.
सूचना प्रावैधिकी के युग में पूरी दुनिया एक ग्लोबल विलेज बन गई है. भूमंडलीकरण के मौजूदा परिदृश्य में हमारे सामाजिक जीवन समेत हर क्षेत्र में मूल्यों और मान्यताओं में अभूतपूर्व परिवर्तन हो रहा है. परंपरागत मूल्यों और मान्यताओं में परिवर्तन का प्रभाव हमारे सोच और हमारी जीवन शैली पर भी पड़ रहा है. आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की सहायता से सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक असंतुलन को कम करने के प्रयास हो रहे हैं. शासन का प्रयास यह होना चाहिए कि बदलते हुए परिवेश में समाज का संतुलित विकास एवं उसके विभिन्न अंगों के बीच पारस्परिक सामंजस्य बनाए रखने के लिए भाषा एवं गुणात्मक विकास पर बल दिया जाए. दरअसल भाषा सिर्फ संचार का माध्यम ही नहीं बल्कि समुदाय के सामूहिक इतिहास एवं विरासत का आइना है.
विविध भाषा-भाषी हमारे देश के विभिन्न प्रान्तों और क्षेत्रों की भाषाएं अलग-अलग हो सकती हैं, परन्तु हिन्दी हमारी एकता और प्यार की भाषा है. कोई भी प्रान्त या अंचल हो, हिन्दी फिल्में और गीत सभी को अच्छे लगते हैं. इसमें दो राय नहीं कि अगर हमारे दिल में अपने देश के लिए, यहां बोली जानेवाली विभिन्न भाषाओं के लिए सम्मान और गौरव का भाव नहीं है, तो नि:संदेह हम राष्ट्र के प्रति वफादार नहीं होंगे.
आज हिन्दी भारत ही नहीं, पूरे विश्व पटल पर तेज़ी से उभर रही है. इस विषय पर आयोजित सम्मेलनों में हम गर्व से कहते हैं कि हिन्दी यूएन की भाषा बनती जा रही है. विश्व के अधिकतर विश्वविघालयों में भारतीय भाषा एवं संस्कृति पढ़ाई जा रही है. पिछले कुछ सालों अमेरिका में एक सकारात्मक परिवर्तन आया है. यहां के समाज में दूसरे समुदायों की भाषा एवं संस्कृतियों को जानने की इच्छा जागृत हुई है. अमेरिका के तमाम विश्वविद्यालयों में भारत, पाकिस्तान,नेपाल,बंगलादेश और अफगानिस्तान के लाखों विद्यार्थियों का जमावड़ा है, इन सबकी संपर्क भाषा हिंदी-उर्दू ही है. दक्षिण एशियाई छात्र संघ विश्वविद्यालय परिसरों में ईद, होली, दीवाली, दशहरा आदि सभी त्यौहार मनाते हैं तथा नृत्य एवं संगीत समारोह,कवि सम्मेलन और मुशायरों का भी आयोजन करते हैं अमेरिकी समाज भी हिंदी-उर्दू के चलन को अपनाने के लिए तैयार दिखता है.
भाषा का काम समाज में ज्ञान का संरक्षण, संवर्द्धन और संप्रेषण होता है. इसके लिए राजनीतिक आधार और संख्या बल से ज़्यादा ज़रूरी होता है, सांस्कृतिक श्रम और मनोबल. भाषा वैचारिक आदान-प्रदान का वह माध्यम है,जिससे दूर-दराज बैठे उस व्यक्ति के पास भी पहुंचा जा सकता है, जो हमें जानता तक नहीं. भाषा से अभिप्राय मात्र अपनी बात कहना नहीं, बल्कि देश, समाज व विश्व से जुड़ना भी है.
वैश्वीकरण के इस दौर में सफल होने के लिए ज़रूरी है कि हम एक-दूसरे के रीति-रिवाज, संस्कृति व भाषा को समझें. आज विश्व में हिन्दी फिल्मों का बहुत बड़ा बाज़ार है. दुनिया भर के लोग हिन्दी फ़िल्मों के नायक-नायिकाओं को जानते और पसन्द करते हैं. हिन्दी इनके माध्यम से भी विश्व में लोकप्रिय हो रही है. हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि भारतीय संस्कृति से बढ़कर कोई दूसरी संस्कृति संसार में नहीं है और इस संस्कृति की ज्योति जलाए रखना, इसे जीवित रखना हमारा प्रथम धर्म है.
हमें विश्वास रखना चाहिए कि राष्ट्रभाषा की जगह हिन्दी के अलावा अन्य कोई भाषा नहीं ले सकती. यह भाषा समस्त राष्ट्र को एकता के मार्ग पर प्रशस्त करती है. हिन्दी भाषा एवं संस्कृति के विकास में ही देश की उन्नति व विकास समाया हुआ है. हर प्रांत के लोग हिन्दी समझ लेते हैं, इसलिए यह भावनात्मक एकता की कड़ी भी है.
आज ज़रूरत इस बात की है कि भाषा एवं संस्कृति के क्षेत्र में किसी विदेशी विद्वान को सम्मानित करने से दोनों देशों के बीच रिश्ते भी मजबूत होते हैं और विदेशों में हमारी संस्कृति एवं भाषा के प्रति जागरूकता भी बढ़ती है.अगर हम खुद अपनी राष्ट्रभाषा या फिर क्षेत्रीय भाषा का सम्मान नहीं करेंगे, तो विश्व में कोई हमारा भी सम्मान नहीं करेगा. आज विश्व के उच्चस्तरीय साहित्यों का हिन्दी में अनुवाद हो रहा है. हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है, हमारे प्राणों की भाषा है. उसे अपनाना हमारा कर्त्तव्य है और धर्म भी. इससे हमारी ख़ुद की गरिमा बढ़ती है और हम एक-दूसरे के और भी निकट महसूस करते हैं. ऐसे ही हिन्दुस्तान की कल्पना कभी हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने की थी.
(प्रोफ़ेसर एम जे वारसी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के भाषाविज्ञान विभाग अध्यक्ष हैं. उनसे warsimj@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)