बिहार में विधानसभा चुनाव के संभावित समय से आठ महीने पहले से ही राज्य का सियासी पारा चढ़ गया है। राजनीतिक दल जहां अपने महागठबंधन में अपनी ताकत और अपनी पकड़ बनाने के लिए जोर लगाए हुए हैं, वहीं माना जा रहा है कि राजनीतिक दल एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में अपने धनबल और बाहुबल का प्रदर्शन करने लगे हैं। इधर, कहा यह भी जा रहा है कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के बाद देश की राजनीति ने करवट ली है, जिस कारण राजनीतिक दल मतों के ध्रुवीकरण के प्रयास में जुट गए हैं।
आरजेडी के तेजस्वी यादव जहां 23 फरवरी से ‘बेरोजगारी हटाओ’ यात्रा पर निकलने वाले हैं, वहीं लोजपा के अध्यक्ष चिराग पासवान ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ यात्रा की शुक्रवार से शुरुआत कर दी है। भाकपा नेता और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार अपनी ‘जन गण मन यात्रा’ के दौरान बिहार की सड़कों पर घूम रहे हैं और लोगों को अपने पक्ष में गोलबंद करने में जुटे हैं।
इसके अलावा जद (यू) के पूर्व उपाध्यक्ष और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ‘बात बिहार की’ अभियान के तहत लोगों को जोड़ने के लिए मैदान में उतरे हैं, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जद (यू) भी ‘चलो नीतीश के साथ चलें’ अभियान की शुरुआत 15 मार्च से करने वाली है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिसंबर और जनवरी में अपनी ‘जल जीवन हरियाली यात्रा’ को लेकर सूचे राज्य का दौरा कर चुके हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार की राजनीति देश की राजनीति को प्रभावित करती है। यही कारण माना जाता है कि देश की नजर बिहार के चुनाव पर रहती है। बिहार विधानसभा चुनाव अक्टूबर-नवंबर में होने की संभावना है, लेकिन सभी दल अभी से ही ‘चुनावी मोड’ में आ गए हैं। बिहार में गठबंधन की राजनीति के कारण दलों की अधिक सीटें पानी की लालच अभी से ही सियासी पारा को चढ़ा दिया है। पटना के ए़ एन. सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान के पूर्व निदेशक डॉ़ डी.एम़ दिवाकर ने एजेंसी से कहा, “अभी तो सेमीफाइनल है। गठबंधन में शामिल दलों को अपनी ताकत दिखाकर सीट पाने का खेल शुरू हुआ है। जैसे-जैसे समय और आगे बढ़ेगा, राजनीतिक दलों का बाहुबल और धनबल का प्रदर्शन बढ़ेगा।”
उन्होंने बेबाक तरीके से कहा कि आज के दौर में जनता की भलाई के लिए चुनाव नहीं होता। अब तो बाहुबल और धनबल के प्रदर्शन से चुनाव जीते जाते हैं। उन्होंने कहा कि कपूर्री ठाकुर, भोगेंद्र झा के दौर में साइकिल पर सवार होकर मतदाता के पास प्रत्याशी पहुंचते थे और पांच साल के काम के एवज में वोट मांगे जाते थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि सीएए के बाद बिहार ही नहीं देश की सियासत करवट ली है, जिसका असर बिहार में देखा जा रहा है। सत्ताधारी जद (यू) के मुस्लिम विधायक भी सार्वजनिक तौर पर सीएए को समर्थन दिए जाने के कारण पार्टी नेतृत्व से नाराज हो गए हैं। ऐसे विधायक नए ठिकाने की तलाश में हैं।
राजनीतिक विश्लेषक और पटना के वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर भी कहते हैं, “सीएए के कारण बिहार की ही नहीं, देश की सियासत ने करवट ले ली है। सीएए के कारण दिल्ली चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं का ध्रुवीकरण (पोलराइजेशन) देखा गया है। बिहार भी इससे अछूता नहीं है।” उन्होंने आगे कहा, “जद (यू) के मुस्लिम विधायक सीएए के विरोध में स्वर उठा रहे हैं और नए पार्टी की तलाश में हैं। इन विधायकों के नए स्थान की तलाश के कारण बिहार में सियासी तापमान बढ़ गया।”
किशोर आगे कहते हैं कि विपक्षी दलों के महागठबंधन में शामिल दल भी अधिक सीटों पर कब्जा जमाने को लेकर बेचैन हैं, जिस कारण उन्होंने भी चुनावी मोड में आकर दबाव की राजनीति शुरू कर दी। वैसे, कहा यह भी जा रहा है कि बिहार में इस चुनाव में राजनीतिक दल अपने कुनबे को बढ़ाने तथा अधिक से अधिक कार्यकर्ता बनाने में जुटे हैं। ऐसे में बहुत पहले ही सियासी तापमान चढ़ने लगा।
राजद के प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी कहते हैं कि आज के दौर में किसी भी राजनीतिक दल के अपनी पैठ बनाए रखने के लिए ‘माइक्रोलेवल’ पर काम करना पड़ता है। ऐसे में चुनाव से काफी पहले तैयारी शुरू करनी पड़ती है। वह कहते हैं कि इस साल होने वाले बिहार चुनाव पर पूरे देश की नजर है और सभी दल यहां बढ़त बनाने में लगे हुए हैं। उन्होंने माना कि पहले और आज के चुनाव में अंतर आया है।